आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं

आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं

पहले कुछ गोरो ने, नंदनवन उजाड़ दिया;
समृद्ध आर्यावर्त का, रत्नमुकुट उतार लिया;
खींची लकीर, दामन भारत माता का फाड़ दिया;
यह दुखद कथा है, सतलुज में लाशो के बहजाने की;
युग-जननी की खंडित मुरत तुम्हें दिखाऊ;
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं||1||

वो कुछ ना खो कर भी, जो बलिदानी है;
उनके वंशज आज, घनघोर अहंकारी है;
जो बलिदानी प्राणो के, उन विरो का ना जय गान किया;
चाटुकार कलमो ने, ना सच्चा इतिहास लिखा;
तुम्हें असल इतिहास का राज़ बताऊ;
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं||2||

अब वह अपमानित अपने ही कुपुत्रो से;
वक्ष पर, सौ-सौ आघात सहे है अपनो के;
भुला दिया जिसकी, गौरवशाली गाथा को;
जननी क्षत्रियों की भला, पराजित कैसे हो पाती;
तुम्हें एक-एक जयचंद का भेद बताऊं;
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं||3||

वो डर दिखलाते, अफ़ज़ल जैसे अभिशापो का;
बंटवारे का नाद छेड़ते, कथित शिक्षा दरबारो से;
अभिव्यक्ति की आड़ में, मातृ-भूमि को दूषण देते;
वो कैसे पुत्र?, अपनी ही माँ का जो दूध लजाते;
उन कुपुत्रो से सबका परिचय कराऊ;
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं||4||

जिनको, विश्व ने नकारा था;
उन्हें भारत भूमि ने स्वीकारा था;
कुछ उनमे से, अब अधिकारो की बात बताते;
लज्जा जाते “भारत माता कि जय” गाने से;
इन सबका पाखंड बताऊं;
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं||5||

सन् सैंतालीस के घावो को, नासूर नहीं बनने देंगे;
सीमाओं पर हत्याओ का, अब दस्तुर नहीं चलेने देंगे;
सर्वसिद्ध हैं, कश्मीर पर एकाधिकार हमारा;
खुद बट जायेंगे टुकड़ों में, पर अब देश नहीं बटने देगे;
अखंड भारत की दिव्य यह अलख जगाऊं;
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं,
आओ! मातृ-भूमि की व्यथा सुनाऊं||6||

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